वांछित मन्त्र चुनें

प्रप्रा॑ वो अ॒स्मे स्वय॑शोभिरू॒ती प॑रिव॒र्ग इन्द्रो॑ दुर्मती॒नां दरी॑मन्दुर्मती॒नाम्। स्व॒यं सा रि॑ष॒यध्यै॒ या न॑ उपे॒षे अ॒त्रैः। ह॒तेम॑स॒न्न व॑क्षति क्षि॒प्ता जू॒र्णिर्न व॑क्षति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra-prā vo asme svayaśobhir ūtī parivarga indro durmatīnāṁ darīman durmatīnām | svayaṁ sā riṣayadhyai yā na upeṣe atraiḥ | hatem asan na vakṣati kṣiptā jūrṇir na vakṣati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रऽप्र॑। वः॒। अ॒स्मे इति॑। स्वय॑शःऽभिः। ऊ॒ती। प॒रि॒ऽव॒र्गे। इन्द्रः॑। दुः॒ऽम॒ती॒नाम्। दरी॑मन्। दुः॒ऽम॒ती॒नाम्। स्व॒यम्। सा। रि॒ष॒यध्यै॒। या। नः॒। उ॒प॒ऽई॒षे। अ॒त्रैः। ह॒ता। ई॒म्। अ॒स॒त्। न। व॒क्ष॒ति॒। क्षि॒प्ता। जू॒र्णिः। न। व॒क्ष॒ति॒ ॥ १.१२९.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:129» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:8


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करके कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मित्रो ! (वः) तुम लोगों के लिये (अस्मे) और हमारे लिये (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् विद्वान् (दुर्मतीनाम्) दुष्ट बुद्धिवाले दुष्ट मनुष्यों के (परिवर्गे) सब ओर से सम्बन्ध में और (दुर्मतीनाम्) दुष्ट बुद्धिवाले दुराचारी मनुष्यों के (दरीमन्) अतिशय कर विदारने में (स्वयशोभिः) अपनी प्रशंसाओं और (ऊती) रक्षा से (प्रप्र, वक्ष्यति) उत्तमता से उपदेश करे (या) जो सेना (नः) हम लोगों के (उपेषे) समीप आने के लिये (अत्रैः) आततायी शत्रुजनों ने (क्षिप्ता) प्रेरित की अर्थात् पठाई हो (सा) वह (रिषयध्यै) दूसरों को हनन कराने के लिये प्रवृत्त हुई (स्वयम्) आप (ईम्) सब ओर से (हता) नष्ट (असत्) हो किन्तु वह (जूर्णिः) शीघ्रता करनेवाली के (न) समान (न) न (वक्षति) प्राप्त हो अर्थात् शीघ्रता करने ही न पावे किन्तु तावत् नष्ट हो जावे ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो दुष्टों के सङ्ग को छोड़ सत्सङ्ग से कीर्त्तिमान् होकर अतीव प्रशंसित सेना से प्रजा की रक्षा करते हैं, वे उत्तम ऐश्वर्य्यवाले होते हैं ॥ ८ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कृत्वा कीदृशा भवेयुरित्याह ।

अन्वय:

हे मित्राणि वोऽस्मे इन्द्रो दुर्मतीनां परिवर्गे दुर्मतीनां दरीमंश्च स्वयशोभिरूती प्रप्र वक्षति या सेना न उपेषेऽत्रैः क्षिप्ता सा रिषयध्यै प्रवृत्ता स्वयमीं हतासत् किन्तु सा जूर्णिर्न न वक्षति ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रपा) अत्र पादपूरणाय द्वित्वम्। निपातस्य चेति दीर्घः। (वः) युष्मभ्यम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (स्वयशोभिः) स्वकीयाभिः प्रशंसाभिः (ऊती) ऊत्या रक्षया (परिवर्गे) परितः सर्वतः सम्बन्धे (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (दुर्मतीनाम्) दुष्टानां मनुष्याणाम् (दरीमन्) अतिशयेन विदारणे। अत्रान्येषामपि दृश्यत इत्युपधादीर्घः। सुपामिति सप्तम्या लुक्। (दुर्मतीनाम्) दुष्टाचारिणां मनुष्याणाम् (स्वयम्) (सा) (रिषयध्यै) रिषयितुम् (या) सेना (नः) अस्मान् (उपेषे) (अत्रैः) अतन्तीत्याततायिनस्तान् गच्छन्तीत्यत्राः शत्रवस्तैः (हता) (ईम्) सर्वतः (असत्) भवेत् (न) निषेधे (वक्षति) उच्यात् (क्षिप्ता) प्रेरिता (जूर्णिः) शीघ्रकारिणी (न) इव (वक्षति) प्राप्ता भवतु ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये दुष्टसङ्गं विहाय सत्सङ्गेन कीर्त्तिमन्तो भूत्वाऽतिप्रशंसितसेनया प्रजा रक्षन्ति ते स्वैश्वर्य्या जायन्ते ॥ ८ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे दुष्टांची संगत सोडून सत्संगाने कीर्तिमान बनतात व अत्यंत प्रशंसनीय सेनेद्वारे प्रजेचे रक्षण करतात ते उत्तम ऐश्वर्यवान होतात. ॥ ८ ॥